
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
भौतिक सुख
पाने का माध्यम
होता है शरीर ।
नहीं फूटती इसमें
शाश्वत और अनंत
नेह की कालजयी कोंपल ।
जन्म जन्म तक जलने वाली
प्रेम की अमर ज्योति
जन्म लेती है आत्मा से ।
शरीर बंधा रहता है जाति
उम्र और सौंदर्य के
खोखले बंधन में ।
जकड़ा रहता है
रूप रंग के मोहपाश में
आजीवन ।
आकर्षण को समझ बैठता है प्रेम
भटकता रहता है उम्रभर
नश्वर संसार में ।
प्रेम जब लेता है आकार
तो सहज ही पहचान लेता है
उस आत्मा को
जिससे होता है उसका
जन्म जन्म का रिश्ता ।
रुप, रंग, जाति और आयु
हो जाती है अर्थहीन
इनके मिलन में ।
प्रेमभरी आत्माएं मिलती हैं
तो शरीर हो जाता है गौण
देवता करते हैं पुष्प वर्षा ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)
5 comments:
जन्म जन्म तक जलने वाली
प्रेम की अमर ज्योति
जन्म लेती है आत्मा से ।
शरीर बंधा रहता है जाति
उम्र और सौंदर्य के
खोखले बंधन में ।
जकड़ा रहता है
रूप रंग के मोहपाश में
आजीवन ।
vaise to apki puri rachan hi uthane laayka hai lekin in lines ne kafi prbhavit kiya.
achhi rachan ke lie shukriya.
बहुत गहन और भावपूर्ण.
गम्भीर चिन्तन, कविता के माध्यम से. सुन्दर.
प्रेम जब लेता है आकार
तो सहज ही पहचान लेता है
उस आत्मा को
जिससे होता है उसका
जन्म जन्म का रिश्ता ।
रुप, रंग, जाति और आयु
हो जाती है अर्थहीन
इनके मिलन में
अशोक जी,
प्रेम को लेकर लिखी गयी एक सुन्दर रचना के लिये हार्दिक बधाई।
पूनम
prem ki sarthak paribhasha di hai aapne..
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