Wednesday, November 4, 2009
अधरों पर खिलते फूल
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
शब्द बन जाते हैं फूल
महकने लगती है
उनकी अर्थवत्ता
संपूर्ण ब्रह्मांड में
जब वो खिलते हैं
तुम्हारे अधरों पर
ठहर जाता है कोलाहल
रुक जाती है
हवा की सरसराहट
सन्नाटा बुनता है
वातावरण में नई भाषा
ऐसे में
बोलती हैं सिर्फ आंखें
मुखर होता है चेहरा
मौन भी हो जाता है
सार्थक
तुम्हारे अधरों पर
मुस्कराहट जब जब
करती है अठखेलियां
खुशियों से
चमकने लगती हैं आंखें
फूट पड़ती हैं चेहरे पर
रोशनी की असंख्य किरणें
उन्मुक्त हंसी
रच देती है
जिंदगी का नया संगीत
तुम्हारे अधरों पर
अपने संपूर्ण अस्तित्व के साथ
जब तुम होती हो मेरे सामने
आंखें हो जाती हैं स्थिर
चेहरे पर उभरने लगते हैं कई सवाल
इन्हीं सवालों के जंगल में
खड़ा रह जाता हूं मैं हतप्रभ
निशब्द, मौन और सम्मोहित
देखता हूं
हजारों हजार रोशनी की कंदीलें
तैरने लगती हैं
तुम्हारे अधरों पर
(फोटो गूगल सर्च से सभार)
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4 comments:
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिपण्णी देने के लिए शुक्रिया! मेरे इस ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है -
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com
बहुत ख़ूबसूरत, भावपूर्ण और दिल को छू लेने वाली रचना लिखा है आपने! बहुत बढ़िया लगा!
बहुत भावपूर्ण रचना है।बधाई स्वीकारें।
इन्हीं सवालों के जंगल में
खड़ा रह जाता हूं मैं हतप्रभ
निशब्द, मौन और सम्मोहित
बहुत सुन्दर रचना.
सुन्दर रचना.
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