Sunday, November 29, 2009

रूप जगाए इच्छाएं



-डॉ. अशोक प्रियरंजन

तुम्हारी आंखों में
देखे हैं मैने हजारों सपने,
जिंदगी का हर पल
महकता रहता है तुम्हारे सपनों से,
खुशियां खिलती हैं
फूट पड़ती हैं उनसे
इंद्रधनुषी सपनों की बेशुमार किरणें,
तब मन में जन्म लेती है एक इच्छा,
इन सपनों में भर दूं
अपने सपनों का इंद्रधनुषी रंग ।

बाल खुलते हैं
खुलकर बिखरते हैं,
फैल जाती है महक संपूर्ण वातावरण में ।
गमक उठती है सृष्टि,
भीनी भीनी सुगंध से ।
चेहरे का गोरापन,
सुंदरता, कोमलता,
लगने लगती है अधिक मोहक,
काले बालों से घिरकर ।
कई बार हवा कर देती है,
बालों को बेतरतीब ।
चाहता हूं मैं
अपनी उंगलियों से संवारूं
इन बालों को,
दे दूं मन के मुताबिक
एक नया आकार ।

मन जब होता है उदास,
घेर लेता है चारों तरफ से
जिंदगी का अकेलापन,
दिन रात की भागदौड़
निगलने लगती है खुशियां,
तब तुम्हारा अहसास ही
गाता है जिंदगी के गीत,
तुम्हारा रूप बिखेरता है चांदनी ।
तब करता है मन
सिर रख दूं तुम्हारी गोद में,
और आंखें निहारती रहें,
तुम्हारा चेहरा ।

तुम्हारा हंसना, मुस्कराना,
और बेसाख्ता खिलखिलाना ।
कर देता है जर्रे जर्रे को रोशन,
होंठों पर मानो खिल उठते हैं गुलाब ।
रोमानी संगीत लगता है गूंजने,
तब कहता है मन,
प्यार से गले लगाकर,
लिख दूं अपने अधरों से,
तुम्हारे अधरों पर,
जिंदगी की नई परिभाषा ।

(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Thursday, November 26, 2009

गालों पर गुलमोहर महके



-डॉ. अशोक प्रियरंजन

आंखें करतीं झिलमिल, ओंठ खुशी से चहके,
मौसम ने ऐसा रंग बदला, गालों पर गुलमोहर महके ।

खुले केश लहरा लहरा कर करते हैं गलबहियां
गोरा मुखड़ा ऐसा लगता जैसे चंदा चमके ।

आंखें, खुशबू, रूप सलोना और नए मीठे कुछ सपने,
इतनी दौलत पाकर अब तो कदम खुशी से बहके ।

मैं लगता हूं तुम्हें पराया, तुम लगती हो मुझको अपनी
इस गुत्थी को सुलझाने में जाने कितने प्रश्न उभरते ।

दिल की गलती, आंख भुगतती, रात चांदनी जलती,
अरमानों में आग लगी है मन बेचारा हर पल दहके।

सुबह सुबह कुछ सपने टूटे, दिन लेकर आता उम्मीदें,
शाम उदासी देकर जाती, रात ठिठोली करती जमके ।

गीत तुम्हीं हो, गजल तुम्हीं हो, तुम्ही प्रेम की कविता
तुम आओ तो महके सांसें, याद तुम्हारी हर पल दमके ।

(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Friday, November 20, 2009

प्रेम मिलन


-डॉ. अशोक प्रियरंजन
भौतिक सुख
पाने का माध्यम
होता है शरीर ।
नहीं फूटती इसमें
शाश्वत और अनंत
नेह की कालजयी कोंपल ।

जन्म जन्म तक जलने वाली
प्रेम की अमर ज्योति
जन्म लेती है आत्मा से ।

शरीर बंधा रहता है जाति
उम्र और सौंदर्य के
खोखले बंधन में ।
जकड़ा रहता है
रूप रंग के मोहपाश में
आजीवन ।

आकर्षण को समझ बैठता है प्रेम
भटकता रहता है उम्रभर
नश्वर संसार में ।

प्रेम जब लेता है आकार
तो सहज ही पहचान लेता है
उस आत्मा को
जिससे होता है उसका
जन्म जन्म का रिश्ता ।
रुप, रंग, जाति और आयु
हो जाती है अर्थहीन
इनके मिलन में ।

प्रेमभरी आत्माएं मिलती हैं
तो शरीर हो जाता है गौण
देवता करते हैं पुष्प वर्षा ।

(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Wednesday, November 11, 2009

रूप तुम्हारा



-डॉ. अशोक प्रियरंजन

सपनों में आकर बस जाता रूप तुम्हारा,
हर पल अपने पास बुलाता रूप तुम्हारा ।

कुछ खट्टी कुछ मिट्ठी यादें करती आंख मिचौली,
अक्सर पूरी रात जगाता रूप तुम्हारा ।

आंखें, खुशबू, ओंठ सलोने और चमकता चेहरा
कितने सारे रंग दिखाता रूप तुम्हारा ।

तुम आओ तो महके चंदन, तुम जाओ फैले सन्नाटा,
मुझको सम्मोहित कर जाता रूप तुम्हारा ।

अहसासों के फूल खिलाए, उम्मीदों की धरती पर,
रोज नए अरमान जगाता रूप तुम्हारा ।

मैं जानूं या मेरी आंखें ही सच को पहचानें,
तुम क्या जानो कैसा लगता रूप तुम्हारा ।

शब्द शब्द संगीत रचाते, मन की वीणा पर रंजन,
गीत, गजल खुद ही बन जाता रूप तुम्हारा ।

(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Wednesday, November 4, 2009

अधरों पर खिलते फूल


-डॉ. अशोक प्रियरंजन

शब्द बन जाते हैं फूल
महकने लगती है
उनकी अर्थवत्ता
संपूर्ण ब्रह्मांड में
जब वो खिलते हैं
तुम्हारे अधरों पर

ठहर जाता है कोलाहल
रुक जाती है
हवा की सरसराहट
सन्नाटा बुनता है
वातावरण में नई भाषा
ऐसे में
बोलती हैं सिर्फ आंखें
मुखर होता है चेहरा
मौन भी हो जाता है
सार्थक
तुम्हारे अधरों पर

मुस्कराहट जब जब
करती है अठखेलियां
खुशियों से
चमकने लगती हैं आंखें
फूट पड़ती हैं चेहरे पर
रोशनी की असंख्य किरणें
उन्मुक्त हंसी
रच देती है
जिंदगी का नया संगीत
तुम्हारे अधरों पर

अपने संपूर्ण अस्तित्व के साथ
जब तुम होती हो मेरे सामने
आंखें हो जाती हैं स्थिर
चेहरे पर उभरने लगते हैं कई सवाल
इन्हीं सवालों के जंगल में
खड़ा रह जाता हूं मैं हतप्रभ
निशब्द, मौन और सम्मोहित
देखता हूं
हजारों हजार रोशनी की कंदीलें
तैरने लगती हैं
तुम्हारे अधरों पर

(फोटो गूगल सर्च से सभार)