Friday, December 25, 2009

तुम्हारी आंख के आंसू?


-डॉ. अशोक प्रियरंजन

कई सवाल ऐसे होते हैं
जो करते हैं हमेशा परेशान,
पैदा कर देते हैं
हर बार चंद नए सवाल।
ऐसा ही एक प्रश्न
खड़ा है मेरे सामने,
काफी तलाशने के बाद भी
नहीं मिल पा रहा इसका जवाब
इसीलिए जेहन में
अक्सर कौंधता रहता है यह सवाल
मेरी आंखों में कैसे आ जाते हैं
तुम्हारी आंख के आंसू ?

हर पल जिंदगी
बदलती रहती है नए रंग
कभी खिलते हैं खुशियों के फूल
तो कभी छा जाती है माहौल में
अजीब किस्म की न टूटने वाली खामोशी।
बोझिल हो जाता है परिवेश
जर्रे जर्रे में फैलने लगती है मायूसी
मैं तब भी नहीं समझ पाता
यह मामूली सी बात
जब तुम होती हो उदास
तो मैं भी
क्यों हो जाता हूं उदास ?

मिलना और बिछुडऩा
है जिंदगी की नियति
मिलते हैं और बिछुड़ जाते हैं,
बिछुड़ते समय ही
जेहन में फिर जागती है
मिलने की उम्मीद और इच्छा।
कभी-कभी होता है ऐसा
तुम नहीं मिल पातीं
तो समझ में नहीं आता
क्यों लगने लगता है
पूरा परिवेश
बेगाना, अजनबी और बेरौनक।

जिंदगी हो जाए
तुम्हारी तरह ही बेहद खूबसूरत,
हर ओर फैली रहे उम्मीदों की रोशनी
तुम यूं ही मिलती रहो हमेशा की तरह
तुम्हारी आंखें कभी न हों नम
चेहरे पर न दिखे उदासी की छाया
हंसना, मुस्कराना और खिलखिलाना
चलता रहे वक्त केसाथ
बातों का सिलसिला कभी टूटने न पाए,
तब शायद
कभी नहीं घेरेगी मुझे उदासी
आंखें भी नहीं होंगी नम
हर तरफ महसूस होगी रौनक
जिंदगी गाएगी खूबसूरत गीत
सजाएगी सतरंगी सपने
तुम्हारे संग।

(फोटो गूगल सर्च से साभार)