Saturday, February 13, 2010

तुम कितनी सुंदर हो


-डॉ. अशोक प्रियरंजन

जब भी होता हूं उदास
आसपास फैली होती हैं
जिंदगी की अनगिनत परेशानियां
तब जेहन में चमकती है
तुम्हारी मुस्कराहट
गालों पर रोशन दीये
दिल में उतर जाने वाली आंखें
मौन में भी गूंज उठता है
तुम्हारी आवाज का जादू
सांसों में महकने लगता है
तुम्हारा अहसास
गमक उठता है पूरा परिवेश
कहने लगता है जर्रा जर्रा
तुम कितनी सुंदर हो।

कभी कभी ऐसा भी होता है
मेरी बातें कर देती हैं तुम्हें उदास
आंखों में चमकती है नमी
आवाज में महसूस होता है ठंडापन
शब्दों में नहीं होता उत्साह
एक अजीब सा सन्नाटा
पसर जाता है तुम्हारे आसपास
लेकिन तुम सहज ही
धीरे-धीरे तोड़ देती हो
इस सन्नाटे को
जिंदगी फिर मुस्कराने लगती है
सचमुच
तुम कितनी सुंदर हो।

(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Friday, January 29, 2010

तुम्हारे बिना!


-डॉ. अशोक प्रियरंजन

जिंदगी में कई बार चारों तरफ
बिखरती हैं खुशियां ही खुशियां
महकने लगते हैं फूल
फैलने लगती है उनकी खुशबू
आंखें देखती हैं
हजारों हजार सपने
उम्मीदों की किरणें
फैलती हैं चेहरों पर
कह जाती हैं, बहुत कुछ बिना कहे
पर मैं उन्हें महसूस नहीं कर पाता
तुम्हारे बिना!

अक्सर सुबह होती है बहुत खूबसूरत
जगाती है कई उम्मीदें
रोशनी बिखेरती है चारों तरफ इंद्रधनुषी रंग
मन में बज उठती हैं एक साथ कई घंटियां
झंकृत कर देती हैं अंतरमन का कोना-कोना
लेकिन मेरा मन
ऐसे में भी हो जाता है उदास
तुम्हारे बिना!

वसंत आता है
गीत गाती है हवा
पत्ता पत्ता बुनता है संगीत
मोहिनी राग की तान
कर देती है सभी को सम्मोहित
लेकिन यह सम्मोहन
मुझे बांध नहीं पाता
मैं चाहता हूं, बंधा रहूं
तुम्हारे रूप के सम्मोहन में उम्रभर
इसीलिए यह संगीत, यह गीत
यह वासंती मौसम
मुझे लगते हैं बेमानी
तुम्हारे बिना!

वह शाम कितनी बोझिल
होती है, जिसमें मेरे साथ
शामिल नहीं होता तुम्हारा अहसास।
न ही देख पाता हूं तुम्हारा रूप
न ही महसूस कर पाता हूं तुम्हारे अहसास
तुम्हारी बातें सुनने को तरस जाता है मन
तब महसूस होता है
जिंदगी कितनी बदरंग है
तुम्हारे बिना !

ऐसा भी होता है कई बार
मैं महसूस करता हूं
चारों तरफ पसरा सन्नाटा
वेवजह फैली उदासी
बोझिल होता वातावरण
बदरंग होती जिंदगी
बढ़ता जाता है हर पल
परायेपन का अहसास
तुम्हारे बिना!

मैं चाहता हूं, देखता रहूं
तुम्हें बेसाख्ता हंसते हुए
तुम्हारे गालों पर फैली रोशनी
आंखों में तैरते सपने
सुनता रहूं होंठों से बिखरता संगीत
जीता रहूं उन अहसासों केसाथ
जो तुम्हारे करीब होने के
अहसास से लेते हैं जन्म
तुम्हारे रूप का जादू रचे एक नया संसार
जिंदगी का सफर तुम से शुरू हो
और तुम पर खत्म
लेकिन सच तो यह है कि
ऐसा कुछ भी संभव नहीं है
तुम्हारे बिना !

(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Friday, December 25, 2009

तुम्हारी आंख के आंसू?


-डॉ. अशोक प्रियरंजन

कई सवाल ऐसे होते हैं
जो करते हैं हमेशा परेशान,
पैदा कर देते हैं
हर बार चंद नए सवाल।
ऐसा ही एक प्रश्न
खड़ा है मेरे सामने,
काफी तलाशने के बाद भी
नहीं मिल पा रहा इसका जवाब
इसीलिए जेहन में
अक्सर कौंधता रहता है यह सवाल
मेरी आंखों में कैसे आ जाते हैं
तुम्हारी आंख के आंसू ?

हर पल जिंदगी
बदलती रहती है नए रंग
कभी खिलते हैं खुशियों के फूल
तो कभी छा जाती है माहौल में
अजीब किस्म की न टूटने वाली खामोशी।
बोझिल हो जाता है परिवेश
जर्रे जर्रे में फैलने लगती है मायूसी
मैं तब भी नहीं समझ पाता
यह मामूली सी बात
जब तुम होती हो उदास
तो मैं भी
क्यों हो जाता हूं उदास ?

मिलना और बिछुडऩा
है जिंदगी की नियति
मिलते हैं और बिछुड़ जाते हैं,
बिछुड़ते समय ही
जेहन में फिर जागती है
मिलने की उम्मीद और इच्छा।
कभी-कभी होता है ऐसा
तुम नहीं मिल पातीं
तो समझ में नहीं आता
क्यों लगने लगता है
पूरा परिवेश
बेगाना, अजनबी और बेरौनक।

जिंदगी हो जाए
तुम्हारी तरह ही बेहद खूबसूरत,
हर ओर फैली रहे उम्मीदों की रोशनी
तुम यूं ही मिलती रहो हमेशा की तरह
तुम्हारी आंखें कभी न हों नम
चेहरे पर न दिखे उदासी की छाया
हंसना, मुस्कराना और खिलखिलाना
चलता रहे वक्त केसाथ
बातों का सिलसिला कभी टूटने न पाए,
तब शायद
कभी नहीं घेरेगी मुझे उदासी
आंखें भी नहीं होंगी नम
हर तरफ महसूस होगी रौनक
जिंदगी गाएगी खूबसूरत गीत
सजाएगी सतरंगी सपने
तुम्हारे संग।

(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Sunday, November 29, 2009

रूप जगाए इच्छाएं



-डॉ. अशोक प्रियरंजन

तुम्हारी आंखों में
देखे हैं मैने हजारों सपने,
जिंदगी का हर पल
महकता रहता है तुम्हारे सपनों से,
खुशियां खिलती हैं
फूट पड़ती हैं उनसे
इंद्रधनुषी सपनों की बेशुमार किरणें,
तब मन में जन्म लेती है एक इच्छा,
इन सपनों में भर दूं
अपने सपनों का इंद्रधनुषी रंग ।

बाल खुलते हैं
खुलकर बिखरते हैं,
फैल जाती है महक संपूर्ण वातावरण में ।
गमक उठती है सृष्टि,
भीनी भीनी सुगंध से ।
चेहरे का गोरापन,
सुंदरता, कोमलता,
लगने लगती है अधिक मोहक,
काले बालों से घिरकर ।
कई बार हवा कर देती है,
बालों को बेतरतीब ।
चाहता हूं मैं
अपनी उंगलियों से संवारूं
इन बालों को,
दे दूं मन के मुताबिक
एक नया आकार ।

मन जब होता है उदास,
घेर लेता है चारों तरफ से
जिंदगी का अकेलापन,
दिन रात की भागदौड़
निगलने लगती है खुशियां,
तब तुम्हारा अहसास ही
गाता है जिंदगी के गीत,
तुम्हारा रूप बिखेरता है चांदनी ।
तब करता है मन
सिर रख दूं तुम्हारी गोद में,
और आंखें निहारती रहें,
तुम्हारा चेहरा ।

तुम्हारा हंसना, मुस्कराना,
और बेसाख्ता खिलखिलाना ।
कर देता है जर्रे जर्रे को रोशन,
होंठों पर मानो खिल उठते हैं गुलाब ।
रोमानी संगीत लगता है गूंजने,
तब कहता है मन,
प्यार से गले लगाकर,
लिख दूं अपने अधरों से,
तुम्हारे अधरों पर,
जिंदगी की नई परिभाषा ।

(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Thursday, November 26, 2009

गालों पर गुलमोहर महके



-डॉ. अशोक प्रियरंजन

आंखें करतीं झिलमिल, ओंठ खुशी से चहके,
मौसम ने ऐसा रंग बदला, गालों पर गुलमोहर महके ।

खुले केश लहरा लहरा कर करते हैं गलबहियां
गोरा मुखड़ा ऐसा लगता जैसे चंदा चमके ।

आंखें, खुशबू, रूप सलोना और नए मीठे कुछ सपने,
इतनी दौलत पाकर अब तो कदम खुशी से बहके ।

मैं लगता हूं तुम्हें पराया, तुम लगती हो मुझको अपनी
इस गुत्थी को सुलझाने में जाने कितने प्रश्न उभरते ।

दिल की गलती, आंख भुगतती, रात चांदनी जलती,
अरमानों में आग लगी है मन बेचारा हर पल दहके।

सुबह सुबह कुछ सपने टूटे, दिन लेकर आता उम्मीदें,
शाम उदासी देकर जाती, रात ठिठोली करती जमके ।

गीत तुम्हीं हो, गजल तुम्हीं हो, तुम्ही प्रेम की कविता
तुम आओ तो महके सांसें, याद तुम्हारी हर पल दमके ।

(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Friday, November 20, 2009

प्रेम मिलन


-डॉ. अशोक प्रियरंजन
भौतिक सुख
पाने का माध्यम
होता है शरीर ।
नहीं फूटती इसमें
शाश्वत और अनंत
नेह की कालजयी कोंपल ।

जन्म जन्म तक जलने वाली
प्रेम की अमर ज्योति
जन्म लेती है आत्मा से ।

शरीर बंधा रहता है जाति
उम्र और सौंदर्य के
खोखले बंधन में ।
जकड़ा रहता है
रूप रंग के मोहपाश में
आजीवन ।

आकर्षण को समझ बैठता है प्रेम
भटकता रहता है उम्रभर
नश्वर संसार में ।

प्रेम जब लेता है आकार
तो सहज ही पहचान लेता है
उस आत्मा को
जिससे होता है उसका
जन्म जन्म का रिश्ता ।
रुप, रंग, जाति और आयु
हो जाती है अर्थहीन
इनके मिलन में ।

प्रेमभरी आत्माएं मिलती हैं
तो शरीर हो जाता है गौण
देवता करते हैं पुष्प वर्षा ।

(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Wednesday, November 11, 2009

रूप तुम्हारा



-डॉ. अशोक प्रियरंजन

सपनों में आकर बस जाता रूप तुम्हारा,
हर पल अपने पास बुलाता रूप तुम्हारा ।

कुछ खट्टी कुछ मिट्ठी यादें करती आंख मिचौली,
अक्सर पूरी रात जगाता रूप तुम्हारा ।

आंखें, खुशबू, ओंठ सलोने और चमकता चेहरा
कितने सारे रंग दिखाता रूप तुम्हारा ।

तुम आओ तो महके चंदन, तुम जाओ फैले सन्नाटा,
मुझको सम्मोहित कर जाता रूप तुम्हारा ।

अहसासों के फूल खिलाए, उम्मीदों की धरती पर,
रोज नए अरमान जगाता रूप तुम्हारा ।

मैं जानूं या मेरी आंखें ही सच को पहचानें,
तुम क्या जानो कैसा लगता रूप तुम्हारा ।

शब्द शब्द संगीत रचाते, मन की वीणा पर रंजन,
गीत, गजल खुद ही बन जाता रूप तुम्हारा ।

(फोटो गूगल सर्च से साभार)