Friday, January 29, 2010

तुम्हारे बिना!


-डॉ. अशोक प्रियरंजन

जिंदगी में कई बार चारों तरफ
बिखरती हैं खुशियां ही खुशियां
महकने लगते हैं फूल
फैलने लगती है उनकी खुशबू
आंखें देखती हैं
हजारों हजार सपने
उम्मीदों की किरणें
फैलती हैं चेहरों पर
कह जाती हैं, बहुत कुछ बिना कहे
पर मैं उन्हें महसूस नहीं कर पाता
तुम्हारे बिना!

अक्सर सुबह होती है बहुत खूबसूरत
जगाती है कई उम्मीदें
रोशनी बिखेरती है चारों तरफ इंद्रधनुषी रंग
मन में बज उठती हैं एक साथ कई घंटियां
झंकृत कर देती हैं अंतरमन का कोना-कोना
लेकिन मेरा मन
ऐसे में भी हो जाता है उदास
तुम्हारे बिना!

वसंत आता है
गीत गाती है हवा
पत्ता पत्ता बुनता है संगीत
मोहिनी राग की तान
कर देती है सभी को सम्मोहित
लेकिन यह सम्मोहन
मुझे बांध नहीं पाता
मैं चाहता हूं, बंधा रहूं
तुम्हारे रूप के सम्मोहन में उम्रभर
इसीलिए यह संगीत, यह गीत
यह वासंती मौसम
मुझे लगते हैं बेमानी
तुम्हारे बिना!

वह शाम कितनी बोझिल
होती है, जिसमें मेरे साथ
शामिल नहीं होता तुम्हारा अहसास।
न ही देख पाता हूं तुम्हारा रूप
न ही महसूस कर पाता हूं तुम्हारे अहसास
तुम्हारी बातें सुनने को तरस जाता है मन
तब महसूस होता है
जिंदगी कितनी बदरंग है
तुम्हारे बिना !

ऐसा भी होता है कई बार
मैं महसूस करता हूं
चारों तरफ पसरा सन्नाटा
वेवजह फैली उदासी
बोझिल होता वातावरण
बदरंग होती जिंदगी
बढ़ता जाता है हर पल
परायेपन का अहसास
तुम्हारे बिना!

मैं चाहता हूं, देखता रहूं
तुम्हें बेसाख्ता हंसते हुए
तुम्हारे गालों पर फैली रोशनी
आंखों में तैरते सपने
सुनता रहूं होंठों से बिखरता संगीत
जीता रहूं उन अहसासों केसाथ
जो तुम्हारे करीब होने के
अहसास से लेते हैं जन्म
तुम्हारे रूप का जादू रचे एक नया संसार
जिंदगी का सफर तुम से शुरू हो
और तुम पर खत्म
लेकिन सच तो यह है कि
ऐसा कुछ भी संभव नहीं है
तुम्हारे बिना !

(फोटो गूगल सर्च से साभार)